Wednesday, June 5, 2013

डिंगल के सर्व श्रेष्ठ महाकवि हिंगलाज दान जी कविया

राजस्थान पत्रिका में नगर परिक्रमा के नाम से एक स्तम्भ आता था। इस में  लेखक की जगह  'नागरिक ' नाम से एक पारिक जी लिखते थे शायद उनका नाम राजेन्द्र परिक था। उन्होंने हिंगलाज दान जी के बारे में दस - बारह अंको में लिखा है। इन की कटिंग पिताजी ने मुझे भेजी थी , उस समय पढ़ कर रख दी। अब सेवा निवृति के बाद दुबारा पढने का मोका मिल रहा है और व्यापक रूप से इसको शेयर करने के साधन भी आज उपलभ्द हैं  सो उसी के आधार पर सन्क्षिप्त में लिखने का प्रयास है।

हिंगलाज दान कविया सेवापुरा के रामप्रताप कविया के दो पुत्रो में जेष्ठ थे। उनका जन्म माघ शुक्ला १ ३ शनिवार सम्वत १ ९ २ ४  में सेवापुरा में हुआ था। तब उनके दादा नाहर कविया विद्यमान थे और उन्ही से इन्होने अपनी आरंभिक शिक्षा पाई। जब वे साढ़े तीन वर्ष के थे तो पिता बारहठ रामप्रताप कविया ने उन्हें बांडी नदी के बहते हुए जल में खड़ा करके जिव्हा पर सरस्वती मन्त्र लिख दिया था। बांडी सेवापुरा के पास हो कर ही बहती है और इस में बरसात में ही पानी आता है। बहता पानी निर्मल गंगा की तरह ही पावन माना जाता है। बांडी नदी के प्रवाह के प्रति भावना व आस्था के साथ पिता ने जो मन्त्र दिया ,उसने अपना चमत्कारिक प्रभाव दिखाया। पांच वर्ष  अल्पायु में ही हिंगलाज दान की कवित्व -शक्ति प्रस्फुटित हो गयी और अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति तथा वंशानुगत संस्कारों के फलस्वरूप वे डिंगल के सर्वश्रेष्ठ महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित और मान्य हुए।
डिंगल व पिंगल के विद्वान होने के साथ ये संस्कृत के भी उदभट पंडित थे। उन्हें अमरकोष पुरा कंठस्थ था।

 (अमरकोश संस्क्रत की व्याकरण थी ,शब्द कोष था। पिताजी स्वर्गीय ठा . सुरजन सिंह जी ब्रह्मचर्य आश्रम नवलगढ़ के स्नातक थे , जितना डिंगल व पिंगल का ज्ञान था उतना ही संस्कृत व अंग्रेजी का ज्ञान था। उन्होंने मिशन हाई स्कूल  ,जयपुर से दसवी १ ९ ३ ०  में पास करली थी। प्रथमा व साहित्य भूषण इलाहबाद व काशी से किया था।   अमरकोष के श्लोक जब उनसे सुनता था तो लगता था की आप किसी स्वप्न लोक में खो गये हो - एक श्लोक विष्णु के लिए था  ' अमरा अजरा विभुधा देवा निर्झरा सूरा ----- आगे की पंक्तियाँ भूल रहा हूँ। यह केवल अमरकोष क्या है उस को समझ ने के लिए लिखा है। )

स्मरण शक्ति तो ऐसी थी की दोहा सोरठा जैसे छन्द एक बार सुन लेने लेने पर ही याद  हो जाते थे। छपये ,
कवित और सवैये जैसे छंद भी दो बार सुन लेने के बाद वे अक्षरक्ष सुना देते थे।डिंगल का गीत छंद बड़ा व कठिन होता है , किन्तु वह भी तीन बार सुन लेने पर उन्हें याद हो जाता था। किसी गीत को लय के साथ पांच बार सुना देने पर उसे वे विपरीत क्रम में दोहरा देते थे। हिंगलाज दान जी बड़ी गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे ,कभी कोई शेखी नही बधारते थे किन्तु एक प्रसंग में उन्होंने कह ही दिया कि उन्हें पूरा अमरकोष कंठस्थ है। कवी शब्दकोश 'मानमंजरी ' के चार सो दोहे भी उन्हें कंठस्थ ही नही थे बल्कि वे वे प्रत्येक शब्द का यथोचित उपयोग भी जानते थे।

परिक जी ने एक अनुभव लिखा है , उन्ही की भाषा में -
कोई चोपन वर्ष (यह लेख शायद १ ५ - २ ० वर्ष पुराना है )पुराणी बात होगी . सोलह वर्ष का मै दीपवाली की धोक देने के लिए जयपुर के साहित्य मनीषी पुरोहित हरिनारायण शर्मा  बी .ए . विद्याभूषण के पास गया था। मै जब पंहुचा तो एक नाटे कद के वयोवृद्ध सज्जन , जिनकी पगड़ी और अंगरखे का लिबास उनको पुराणपंथी जता रहा था, पुरोहित जी से विदा लेकर वहां से जा रहे थे और पुरोहित जी ,जो उन सज्जन से कद में लगभग डेढ़ नही तो सवाये अवश्य थे ,अपनी झुकी कमर के साथ उठ खड़े हुए थे और बड़े आत्मीय भाव से उनके साथ द्वार  तक जाकर उन्हें विदा कर रहे थे। जब वे चले गये और पुरोहित जी अपने स्थान पर लोट आये तो मेरी और देख कर पूछने लगे  " भाया थे आने जाणो छो ज्यो अबार अबार गया छे ?' मैंने गर्दन हिलाकर न में जवाब दिया , पुरोहित जी ने दूसरा प्रश्न किया " थे मैथली शरण गुप्त न जाणो छो ? " मैंने हाँ में उतर दिया ...... तो पुरोहित जी ने कहा " ये जो गया वै मैथली शरण गुप्त सूं इक्कीस छे , उन्नीस कोनै। बहुत बड़ा कवी छ ये हिंगलाज दान जी कविया "

१ ९ ४ ५ ई . में हरिनारायण जी पुरोहित का निधन हुआ तो उन का श्रधांजलि अंक पारिक जी ने निकाला व हिंगलाज दान जी को अपने परम मित्र के लिए काव्यांजलि लिख कर भेजने का निवेदन किया। उन्होंने जो मरसिया लिख भेजा वो  इस प्रकार है :

इग्यारस सुकल मंगसर वाली , दो हजार पर संवत दुवो !
यण दिन नाम सुमरि नारायण , हरिनारायण सांत हुवो  !!
परम प्रवीण पिरोंथा भूषण , विधा भूषण वृद्ध वयो  !
भगवत भगत उर्जागर भारथ , गुणसागर सुरलोक गयो !!
करि मृत लोक जोखा कान्थडियो , घट छट कायो तीकण घडी !
पुहप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पड़ी !!
भायां ज्यूँ मिलतो बडभागी , घरी आयां करि कोड घनै !
मिलसी हमें सुपने रै मांही , तनय मना पारिक तणे  !!
हाय पिरोथ , अदरसण ऊगो , हाथां पाय सपरसण  हार !
जुनू मित्र सुरगपुर जातां , सुनो सो लागे संसार  !!

मरसिया क्या है , कवी ने अपने प्रिय मित्र के विछोह पर अपना हृदय ही उड़ेल कर रख दिया है। भायां ज्यूँ मिलतो बड भागी , घरि आयां करि कोड घणो और जूनो मित्र सुरगपुर जातां ,सुनो सो लगे संसार  , मार्मिक शोकोदगार हैं।  'पहुप झड़ी लागी सुरपुर में , पुर जयपुर में कसर पडी ' रिक्तता का आभास करा दिया।

मुझे इनकी कविता में रूचि निचे लिखे पद्य को सुनकर हुयी :

झाल्यो बळ झुंपडा , कालजो हाल्यो किलाँ !
दबगी गोफ्याँ देख , टकर खानी गज टिल्ला !!
खग ढाला बिखरी , जेलिया जोड्या जिल्ला !
धणीयारी धातरी , प्रातरी लेवे पुल्ला !
जोड़ता हाथ थाने जिका , उभा हाथ उभारिया !
गढ़ पत्यां आज कैठे गई , थारी तेग घनी तरवारिया !!

इन की रचनाओं में  'मेहाई महिमा ' मृगया -मृगेंद्र ' 'आखेट अपजस '   'दुर्गा बहतरी 'व फुट कर गीत व कवित जिन में कुछ प्रकाशित व अप्रकाशित  है।

मृगया मृगेंद्र  कथा यूँ चलती है - शंकर के शाप से मृत्यु लोक में उत्त्पन मृगराज ने विन्ध्य चल की पर्वत श्रेणी में बड़ा आतंक मचाया और पहाड़ी मार्गो को अवरुद्ध कर दिया। हाडोती के हाडो में कोई ऐसा नही था जो उसका वध करने का साहस दिखाता। वह अपनी सिहनी के साथ घूमता घामता मारवाड़ के कुचामन के पहाड़ की और आ निकला और वंहा एक कन्दरा में रहने लगा। तब कुचामन के ठाकुर केशरी सिंह थे व उनका कुंवर शेर सिंह  बड़ा पराक्रमी व बलि था। यहाँ कवि ने कुचामन नगर का सोंदर्य ,वहां के निवासियों और हाथी घोड़ों -ऊँटो आदि का बड़ा सजीव वर्णन किया है। कुंवर शेर सिंह को जब इस सिंह के आने की खबर मिली तो उन्होंने इसके शिकार की तैयारी की। वन में जाकर उन्होंने सिंह को हकाला -चुनोती दी। सिंह निकलकर आया और शेर सिंह ने उसे अपनी तलवार से ही धराशायी कर दिया।

आखेट का वर्णन बड़ा ही रोचक व सजीव है। भाषा पर हिनगलाज दान  जी का पूर्ण अधिकार था। कुवर शेर सिंह व उनका  शिकारी दल जब निकट आ जाता है  तो ' गजां गाह्णी नाह सूतो जगायो ' , सिंहनी अपने सोते हुये नाथ को जगाती है -

सती रा पती ऊठ रै काय सोवे , जमी रा धणी ताहरी राह जोवे !
बजे सिंधु वो राग फोजां बकारै , थई थाटरां पेर चोफेर थारे  !!
 दलां भंजणा , ऊठ जोधा दकालै , घणा रोस हूँ मो सरां हाथ घालै !
अडिबा खड़े दूर हूँ सूर आया , जुड़ेबा कीसुं जेज लंकाल जाया !!

भावार्थ : हे सती के पति ! हे मृग राज नीद से उठो सो क्यों रहे हो। ये देखो इस जमीन के धणी ,जमीन के मालिक तुम्हारी राह देख रहे हैं।  सिंन्धू राग बज रहा है ,फोज युद्ध घोष कर रही है। सेना ने तुम्हे चोतरफ़ से घेर लिया है। हे दल भन्जन ! उठो ये योद्धा तुमे ललकार रहे है।बड़े क्रोधित हो ये हमारे सिरों पर हाथ ड़ाल रहे है।ये सूर सिंह अड़ कर खड़ा है। हे योद्धा इन से भीड़ में देर कैसी।

बरूंथा गजां गंजणी एम बोली ,खुजाते भुजा डाकि ये आँख खोली !
द्रगां देख सुंडाल झंडा दकुला , प्रलय काळ रूपी हुवो झाल पूलां !
करे पूंछ आछोट  गुंजार किधि , बाड़ेबा अड़े आभ हूँ झंप लिधि !

भावार्थ : सिंहनी से यह सब सुन कर सिंह कुपित होता है , भुजा को खुजाते हुए सिंह ने आँख खोली। गुस्से में भरकर पूंछ को सीधी कर गर्जना की और जैसे आसमन में अडना है वैसे छलांग लगा दी।

फिर सिंह को देख कर शेर सिंह अपनी तलवार लेकर उस पर झपटे , शेर से शेर भिड गया। इस द्वंद का रोमंचक दृश्य है -

लखे सेर नू सेर केवाण लीनी , भुंवारां भिड़ी मोसरां रोस भीनी !
कह्यो साथ नु लोह छुटो न कीजे , लडाई उभै सेर की देख लीजै !!

सिंह के शिकार के बाद सिंहनी का भी शिकार किया गया। कवि की कल्पना देखते ही बनती है। -

सती सिंघणी पोढ़ीयो पेट स्वामी , बणी संग सहगामिणी अंग बामी !
सताबी तजे मद्र रा छुद्र सैला , गया दम्पति अद्र कैलास गेलाँ !!

इस प्रकार मृत्यु लोक में अपना शापित जीवन समाप्त कर सिंह दम्पति पुन: कैलास पर चले गये।

 
  








2 comments:

  1. हुकुम बहुत सुंदर वर्णन। किन्ही विद्वान ने मेहाई महिमा का अनुवाद किया है क्या ? यदि आपकी जानकारी में हो तो कृपया बतायें। प्रणाम

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